"ये न थी हमारी क़िस्मत, कि विसाल-ए-यार होता ......"
ये ग़ज़ल ग़ालिब की सब से ज्यादा मक़बूल ग़ज़लों में से एक है. न जाने कितनी आवाजों में सुनी है इसे. आज सुनिए ये ग़ज़ल मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ में.
मुझे कभी कभी अजीब लगता है कि आम तौर पे हम आजकल जब ग़ज़ल गायकी के बारे में बातें करते हैं, तो रफ़ी का ज़िक्र ही नहीं होता. बेग़म अख्तर, मेहदी हसन, गु़लाम अली, जगजीत सिंह .... और भी न जाने कितने फ़नकार ... लेकिन मुहम्मद रफ़ी ?? ये अंदाज़, ये अदायगी ... सब से जुदा है, कमस्कम मुझे तो बहुत पसंद है. आप भी सुन कर महसूस करें.
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते, यही इंतज़ार होता
तेरे वादे पर जिए हम, तो ये जान झूठ जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर ए'तिबार होता
कोई मेरे दिल से पूछे, तेरे तीर-ए-नीमकश को
ये ख़लिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता
ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान ग़ालिब
तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़ार होता
विसाल-ए-यार = यार / प्रिय से मिलन
तीर-ए-नीमकश = आधा खिंचा हुआ / कमज़ोर तीर
ख़लिश = चुभन, वेदना
तसव्वुफ़ = आध्यात्मवाद, Philosophy
वली = ऋषि, महात्मा
बादाख़ार = शराबी
इस रिकॉर्डिंग में सिर्फ़ चार शेर ही हैं. पूरी ग़ज़ल कुछ इस तरह है :
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते, यही इंतज़ार होता
तेरे वादे पर जिए हम, तो ये जान झूठ जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर ए'तिबार होता
तेरी नाज़ुकी से जाना कि बंधा था अहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता, अगर उस्तवार होता
कोई मेरे दिल से पूछे, तेरे तीर-ए-नीमकश को
ये ख़लिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता
ये कहाँ की दोस्ती है, कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारः साज़ होता, कोई ग़मगुसार होता
रग-ए-संग से टपकता, वो लहू कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो, ये अगर शरार होता
ग़म अगरचे जाँगुसिल है, प कहाँ बचें, कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता
कहूँ किस से मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता
हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता
उसे कौन देख सकता, कि यागानः है वो यकता
जो दुई की बू भी होती, तो कहीं दुचार होता
ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान ग़ालिब
तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़ार होता
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