सुबह जैसे ही रेडियो चालू किया, मुझे एक जोर का झटका लगा और एक्सिडेंट होते होते बच गया। गाने के बोल थे
'बिल्डिंग है ऊंची, लिफ़्ट है बंद, कैसे आऊं, दिल तो है रजामंद'
ये गाना है?
इसके बाद का गाना इस से भी बढ़ चढ़ कर था
'हश हश हश पापा स्लीपिंग, वॉल्यूम कम कर पापा जाग जायेगा'
हे भगवान! ये गाने गुनगुना के आज की पीढ़ी बढ़ी होगी? कहां गयी नजाकत और कहां गया रोमांस्। हमारे ख्यालों को पंख लग गये। आज की पीढ़ी की लड़की जब साठ की हो जायेगी तो क्या ये गाने याद कर मुस्कुराएगी। क्या ये गाने याद रहेगें?
हमने फ़ौरन चैनल बदला और हवा में लहराया
' अभी न जाओ छोड़ के, कि दिल अभी भरा नहीं'
ये गीत हमारी जिन्दगी में खास मायने रखता है। मुहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले की आवाज देवानंद साधना और नंदा की फ़िल्म् 'हम दोनों'। ये फ़िल्म 1961 में आयी थी। हम छ:, साड़े छ: साल के रहे होगें। अलीगढ़ का मथुरा नगर मौह्ल्ला। पूरा मौह्ल्ला एक बड़ा सा बनियों का कुनबा था। हर मकान इतना बड़ा कि दो मकान के बीच का रास्ता गली बनाता था। हर किसी ने मकान का एक या दो हिस्सा किराये पर उठा रखा था, खास कर छत्त पर बने कमरे। ऐसे ही एक मकान के छत्त के हिस्से में हमारा परिवार किराये के मकान में रहता था। पिता कॉलेज के प्रोफ़ेसर्। उसी छत्त पर बीच में दिवार खड़ी कर एक और तीन कमरों का पोर्शन बना हुआ था जिस में एक और प्रोफ़ेसर अपने परिवार के साथ रहते थे। छत्त के दोनों पोर्शनों के बीच जो पार्टीशन दिवार थी उसमें दरवाजा था सो एक दूसरे के घर आने जाने में कोई अड़चन नहीं लेकिन दोनों पोर्शन की सीढ़ियां अलग अलग थीं। इसी एक सीढ़ी के बीच में भी एक कमरे का पोर्शन था जिसमें एक तीसरा प्रोफ़ेसर रहता था। नाम था मि सक्सेना। वो अभी कुंवारा था लिहाजा अकेला उस कमरे में रहता था। इससे ज्यादा हमें उस शक्स के बारे में कुछ ज्यादा याद नहीं। तीनों प्रोफ़ेसर एक ही कॉलेज के, आपस में खूब दोस्ती, सुबह की बैड टी से लेकर रात का खाना तक साथ साथ तीनों मिल कर खाते थे। हम कभी कभी कौतुहलवश घूमते घामते सक्सेना साहब के कमरे में भी पहुंच जाते थे। एक दिन हम सुबह सुबह पहुंच गये। रेडियो पर यही गीत बज रहा था और सक्सेना साहब साथ साथ गुनगुना रहे थे। गीत हमें भी बहुत अच्छा लग रहा था। बोल तो नहीं समझ रहे थे लेकिन गीत अच्छा लग रहा था। सक्सेना साहब ने हमें भाव विभोर हो गीत सुनते देखा तो हमसे मुखातिब होते हुए गीत पर अभिनय भी शुरु कर दिया। हम शर्म से लाल हो लिए। सक्सेना साहब को हमें छेड़ने में मजा आने लगा और फ़िर हम जब भी उनके कमरे में जाते तो वो यही गीत गुनगुना कर हमें छेड़ते।
बिना गीतों के बोल जाने भी इस गीत ने हमें पहली बार हमारे नारी होने का बोध करवाया। आज भी ये गीत हमें बहुत रुमानी लगता है॥अब तो खैर इसके बोल समझते हैं…।:)
आप भी सुनिए और इसकी रुमानियत का मजा लीजिए
11 टिप्पणियां:
aay haay, kahan se kahaa link joda aapne, fir to jab bhi aap is gane ko sunte hoge vahi din yaad aa jate honge aapko, hai na?
gana to no doubt shandar hai ji
वाह! क्या गाना सुनवाया इस बेहतरीन भूमिका के साथ.
वाह! सक्सेनाजी की जय हो!
और लिखें संस्मरण । ये दिल अभी भरा नहीं ।
sundar geet hai aur pehle waale to jaane kya hai...
अनिताजी ,
आपकी पोस्ट तो बाद में पढ़ी पहले पढ़ी आपकी कविता. कितनी सहज है आपकी अभिव्यक्ति और जिसमें सिर्फ आपकी नहीं हर नारी कि अभिव्यक्ति है. संस्मरण अच्छा है, आज के गाने मुझे तो बिल्कुल भी पसंद नहीं है. अपने पुराने वाले इसी लिए मैं आज भी रेडियो सुनना पसंद करती हूँ. कम से कम प्रिय गाने तो मिल जाते हैं और जो मिलते हैं अर्थपूर्ण तो हैं.
कई गीत होते हैं जिनसे यादें जुडी होती हैं..
यह गीत वाकई बहुत ही मधुर और रूमानियत भरा है...उस पर दोनों का सशक्त अभिनय!
आभार गीत और संस्मरण बाँटने के लिए
बहुत ख़ूब मैम ... वैसे इस गीत के साथ कोई याद न भी जुड़ी हो ... तो भी ये गीत हमेशा याद रहता है .....
अहा..आपकी मीठी यादें उस पर मीठा गीत... आनन्द आ गया...बार बार सुनो तो भी जी न भरे...
badhiya sansmaran...
Gone are the days of beautiful songs and sensible stories. Nowadays violence and vulgarity is on rise.
Thanks for the beautiful song. It is one of my favorites.
:) साढ़े छे साल में नारी बोध :)
बच्चे और खासकर लड़कियां पहले कितनी जल्दी बूढ़ी हो जाती थीं । बचपन ...........
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