शनिवार, 18 सितंबर 2010

चलो इक बार फ़िर से अजनबी बन जाएं हम दोनों



फ़िल्म गुमराह का ये गीत मेरे पसंदीदा गीतों में से एक है। आज ये गीत याद आ रहा है, लेकिन इस का संदर्भ बदल गया है। तीस साल पहले एक महत्त्वकाशीं लड़की की झोली में एक नन्हीं सी जान डाल दी गयी थी और वो अपने सारे सपने, सारी मह्त्त्वकाशांओ को भूल गयी थी, पिछले तीस सालों से उसकी सिर्फ़ एक ही पहचान थी-माँ-

बेटे के जवानी की तरफ़ बढ़ते कदम उसके मन में फ़ूल जगा देते। उस शेखचिल्ली मां ने न जाने कितने सपने देख डाले, पोते पोतियों को सुनाने के लिए कितनी ही कहानी की किताबें खरीद के पढ़ डालीं। अब सिर्फ़ इंतजार था तो बस बेटे की शादी का। जब जब इतवार को बेटे को सारा सारा दिन टी वी से चिपका पाती तो उसका मन रो उठता कि हाय मेरा बेटा अकेला है अब इसे कोई साथिन मिल जानी चाहिए। बड़े इंतजार के बाद वो दिन आ ही गया। बहू के रुप में बिटिया मिल गयी। वो बिटिया भी थी और दोस्त भी। दिन भर सास बहू अपने अपने काम पर और शाम को टी वी के आगे बैठ कर सास बहू गप्पें लगातीं। फ़िर एक दिन पता नहीं क्या हुआ हवाओं के रुख बदल गये बिना कोई संकेत दिये।

आज वो माँ एक बार फ़िर सिर्फ़ पत्नी बनने को मजबूर हो गयी है। कहानी की किताबें सब रद्दीवाले को नजर कर दी गयी हैं। कानों में महेंद्र कपूर की आवाज गूंज रही हैं 'चलो इक बार फ़िर से अजनबी बन जाएं हम दोनों' पर कैसे?

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बड़ा अच्छा गाना लगता है यह। अजनबी का आकर्षण और जाने पहचाने मनसत्यक्ता।